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पाकिस्तानी शायरा , अपने स्त्री-वादी विचारों और धार्मिक कट्टरपन के विरोध के लिए मशहूर

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किश्वर नाहीद के शेर

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कुछ दिन तो मलाल उस का हक़ था

बिछड़ा तो ख़याल उस का हक़ था

दिल को भी ग़म का सलीक़ा था पहले पहले

उस को भी भूलना अच्छा लगा पहले पहले

हमें देखो हमारे पास बैठो हम से कुछ सीखो

हमीं ने प्यार माँगा था हमीं ने दाग़ पाए हैं

दिल में है मुलाक़ात की ख़्वाहिश की दबी आग

मेहंदी लगे हाथों को छुपा कर कहाँ रक्खूँ

अब सिर्फ़ लिबास रह गया है

वो ले गया कल बदन चुरा कर

जवान गेहूँ के खेतों को देख कर रो दें

वो लड़कियाँ कि जिन्हें भूल बैठीं माएँ भी

उस को फ़ुर्सत भी नहीं मुझ को तमन्ना भी नहीं

फिर ख़लिश क्या है कि रह रह के वफ़ा ढूँढती है

अपनी बे-चेहरगी छुपाने को

आईने को इधर उधर रक्खा

हमें अज़ीज़ हैं इन बस्तियों की दीवारें

कि जिन के साए भी दीवार बनते जाते थे

शामिल हूँ मैं तेरे रतजगों में

जागूँ भी तो तेरे ख़्वाब सोचूँ

पानी का बहाव थम गया है

निकली है नदी से वो नहा कर

उसे ही बात सुनाने को दिल नहीं करता

वो शख़्स जिस के लिए ज़िंदगी समाअ'त थी

कौन जाने कि उड़ती हुई धूप भी

किस तरफ़ कौन सी मंज़िलों में गई

तअल्लुक़ात के तावीज़ भी गले में नहीं

मलाल देखने आया है रास्ता कैसे

अपना नाम भी अब तो भूल गई 'नाहीद'

कोई पुकारे तो हैरत से तकती हूँ

ये ज़िंदगी जिसे ढूँडा था आसमानों में

हवा के हाथ पे लिक्खी हुई इबारत थी

कुछ यूँ ही ज़र्द ज़र्द सी 'नाहीद' आज थी

कुछ ओढ़नी का रंग भी खिलता हुआ था

उदासियों को तो आँगन ही चाहिएँ ख़ाली

छतों पे चाँदनी रातों का सिलसिला रखना

एक मौहूम सा रिश्ता है सो रखना इस को

तुम जहाँ जाओ समझ लेना वहीं हम भी थे

वो जिस का शौक़ है खिलते गुलाब मल देना

गले मिलो तो उसे भी उदास कर जाना

मलाल उस को भी था और उदास हम भी थे

ये कैसी पहली मुलाक़ात थी कि ग़म भी थे

मान भी लूँ कि तिरी याद महज़ वाहिमा है

फिर भी वो याद ही दम-साज़ रही शाम-ओ-सहर

भेजी हैं उस ने फूलों में मुँह-बंद सीपियाँ

इंकार भी अजब है बुलावा भी है अजब

लरज़ रही है ज़मीं सहमी लड़कियों की तरह

पुकारती है कि तन्हा छोड़ कर जाना

अब तो बदन के जलने की बू शहर भर में है

कहना भी नारवा है सो कहता नहीं कोई

माँग में टाँकने आया था सितारे कोई

दिल को क्या सूझी कि उस ख़्वाब को बीमार किया

वो जब भी आया बहुत तेज़ बारिशों जैसा

वो जिस ने चाहा मुझे सुरमई घटा रखना

शायद उदास शाख़ों से लिपटा हुआ मिले

अपनी गली में उस का ठिकाना भी है अजब

दिल को तिरे फ़िराक़ की आरज़ू याद रह गई

दिन वो मोहब्बतों के भी मिस्ल-ए-रह-ए-सफ़र गए

हाँ उन्ही गुज़रे ज़मानों के सदा-साज़ हैं हम

जिन के शो'लों पे हवा नाचती देखी हम ने

मर्दों को सब रवा है औरत को नारवा

शर्म-ओ-हया का शहर में चर्चा भी है अजब

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