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मतीन नियाज़ी

1913 - 1993 | कानपुर, भारत

मतीन नियाज़ी

ग़ज़ल 9

अशआर 27

ज़िंदगी की भी यक़ीनन कोई मंज़िल होगी

ये सफ़र ही की तरह एक सफ़र है कि नहीं

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ऐसे खोए सहर के दीवाने

लौट कर शाम तक घर आए

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ग़म-ए-इंसाँ को सीने से लगा लो

ये ख़िदमत बंदगी से कम नहीं है

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तूफ़ाँ से बच के डूबी है कश्ती कहाँ पूछ

साहिल भी ए'तिबार के क़ाबिल नहीं रहा

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आप से याद आप की अच्छी

आप तो हम को भूल जाते हैं

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