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मोईद रहबर

1985 | लखनऊ, भारत

मोईद रहबर

ग़ज़ल 10

अशआर 34

अना-परस्त हूँ मिल जाऊँ ख़ाक में लेकिन

ख़रीद सकता नहीं कोई माल ज़र से मुझे

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हम मुसाफ़िर हैं कहाँ घर की तरफ़ देखते हैं

हर घड़ी मील के पत्थर की तरफ़ देखते हैं

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गर कुछ नहीं है यार तिरे पास ग़म तो है

तू ख़ुश-नसीब है कि तिरी आँख नम तो है

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पहले ये सोचता रहता था कि तन्हा हो जाऊँ

आज तन्हा हूँ तो तन्हाई से डर लगता है

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लाख तब्दीलियाँ बाज़ारों में आएँ रहबर

मैं वो सिक्का हूँ जो हर दौर में चल जाऊँगा

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