क़मर अब्बास क़मर के शेर
तिश्ना-लब ऐसा कि होंटों पे पड़े हैं छाले
मुतमइन ऐसा हूँ दरिया को भी हैरानी है
मेरे माथे पे उभर आते थे वहशत के नुक़ूश
मेरी मिट्टी किसी सहरा से उठाई गई थी
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पहाड़ पेड़ नदी साथ दे रहे हैं मिरा
ये तेरी ओर मिरा आख़िरी सफ़र तो नहीं
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मजनूँ से ये कहना कि मिरे शहर में आ जाए
वहशत के लिए एक बयाबान अभी है
ये एहतिजाज अजब है ख़िलाफ़-ए-तेग़-ए-सितम
ज़मीं में जज़्ब नहीं हो रहा है ख़ूँ मेरा
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अब कि मुमकिन है ज़मीं ख़ून की प्यासी न रहे
इक क़बीले ने मेरी बात नहीं मानी है
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मुझे बचा ले मिरे यार सोज़-ए-इमशब से
कि इक सितारा-ए-वहशत जबीं से गुज़रेगा
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अलग अलग सी है सम्तों का अब सफ़र दरपेश
तुम्हारा हाथ मिरे हाथ से जुदा भी नहीं
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पलटने वाले परिंदों पे बद-हवासी है
मैं इस ज़मीं का कहीं आख़िरी शजर तो नहीं
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सर्द रातों का तक़ाज़ा था बदन जल जाए
फिर वो इक आग जो सीने से लगाई मैं ने
यूँ रात गए किस को सदा देते हैं अक्सर
वो कौन हमारा था जो वापस नहीं आया