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शाहिद कमाल

1982 | लखनऊ, भारत

शाहिद कमाल के शेर

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जंग का शोर भी कुछ देर तो थम सकता है

फिर से इक अम्न की अफ़्वाह उड़ा दी जाए

जब डूब के मरना है तो क्या सोच रहे हो

इन झील सी आँखों में उतर क्यूँ नहीं जाते

ये कैसा दश्त-ए-तहय्युर है याँ से कूच करो

हमारे पाँव से रफ़्तार खींचता है कोई

तू मेरे साथ नहीं है तो सोचता हूँ मैं

कि अब तो तुझ से बिछड़ने का कोई डर भी नहीं

इन दिनों अपनी भी वहशत का अजब आलम है

घर में हम दश्त-ओ-बयाबान उठा लाए हैं

शाख़-ए-मिज़्गाँ पे महकने लगे ज़ख़्मों के गुलाब

पिछले मौसम की मुलाक़ात की बू ज़िंदा है

हवा की डोर में टूटे हुए तारे पिरोती है

ये तन्हाई अजब लड़की है सन्नाटे में रोती है

हाँ वज़-ए-एहतियात का क़ाइल नहीं हूँ में

जो ज़ख़्म है जिगर में छुपाने से मैं रहा

इक नए तर्ज़ पे आबाद करेंगे उस को

हम तिरे शहर की पहचान उठा लाए हैं

इस आजिज़ी से किया उस ने मेरे सर का सवाल

ख़ुद अपने हाथ से तलवार तोड़ दी मैं ने

चश्म-ए-ख़ुश-आब की तमसील में रहने वाले

हम परिंदे हैं इसी झील में रहने वाले

किस लिए करते हो तुम हर्फ़-ए-मलामत से गुरेज़

हम कहाँ सोहबत-ए-जिब्रील में रहने वाले

तीर मत देख मिरे ज़ख़्म को देख

यार-ए-यार अपना अदू में गुम है

बुरीदा-सर को सजा दे फ़सील-ए-नेज़ा पर

दरीदा जिस्म को फिर अर्सा-ए-क़िताल में रख

रेत पर वो पड़ी है मुश्क कोई

तीर भी और कमान सा कुछ है

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