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शम्स फ़र्रुख़ाबादी

1936 | लखनऊ, भारत

शम्स फ़र्रुख़ाबादी

ग़ज़ल 11

दोहा 4

आँखें धोका दे गईं पाँव छोड़ गए साथ

सभी सहारे दूर हैं किस का पकड़ें हाथ

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भले बुरे बरताव का है इतना सा राज़

गूँजे पलट के जिस तरह गुम्बद की आवाज़

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बिछड़े हुओं के आज फिर ख़त कुछ ऐसे आए

जैसे पटरी रेल की दूर पे इक हो जाए

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एक बगूला साँस का हवा जिसे तैराए

हवा हवा में जा मिले बस माटी रह जाए

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