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वक़ार मानवी

1939 | दिल्ली, भारत

वक़ार मानवी के शेर

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बहुत से ग़म छुपे होंगे हँसी में

ज़रा इन हँसने वालों को टटोलो

हमारी ज़िंदगी कहने की हद तक ज़िंदगी है बस

ये शीराज़ा भी देखा जाए तो बरहम है बरसों से

ग़रीब को हवस-ए-ज़िंदगी नहीं होती

बस इतना है कि वो इज़्ज़त से मरना चाहता है

सलीक़ा बोलने का हो तो बोलो

नहीं तो चुप भली है लब खोलो

हर ग़म सहना और ख़ुश रहना

मुश्किल है आसान नहीं है

कहाँ मिलेगी भला इस सितमगरी की मिसाल

तरस भी खाता है मुझ पर तबाह कर के मुझे

अब के 'वक़ार' ऐसे बिछड़े हैं

मिलने का इम्कान नहीं है

इन आँसुओं से भला मेरा क्या भला होगा

वो मेरे बाद जो रोया भी याद कर के मुझे

दिल में जो मर जाए वो है अरमाँ

जो निकले अरमान नहीं है

ख़ुशी दामन-कशाँ है दिल असीर-ए-ग़म है बरसों से

हमारी ज़िंदगी का एक ही आलम है बरसों से

मैं ज़िंदगी को लिए फिर रहा हूँ कब से 'वक़ार'

ये बोझ अब मिरे सर से उतरना चाहता है

'वक़ार' काश मेरी उम्र में शामिल की जाए

वो मुद्दत हाँ वही मुद्दत जो गुज़री उन की फ़ुर्क़त में

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