ज़की काकोरवी के शेर
अहल-ए-दिल ने किए तामीर हक़ीक़त के सुतूँ
अहल-ए-दुनिया को रिवायात पे रोना आया
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अक़्ल ने तर्क-ए-तअल्लुक़ को ग़नीमत जाना
दिल को बदले हुए हालात पे रोना आया
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जुनूँ के कैफ़-ओ-कम से आगही तुझ को नहीं नासेह
गुज़रती है जो दीवानों पे दीवाने समझते हैं
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टैग : आगही
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याद इतना है कि मैं होश गँवा बैठा था
छुट गया हाथ से कब जाम मुझे याद नहीं
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वो तिरी ज़ुल्फ़ का साया हो कि आग़ोश तिरा
मिल गया हो कभी आराम मुझे याद नहीं
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मंज़िल जिसे समझते थे यारान-ए-क़ाफ़िला
पहुँचे जो उस जगह तो फ़क़त संग-ए-मील था
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शिकवा नहीं दुनिया के सनम-हा-ए-गिराँ का
अफ़सोस कि कुछ फूल तुम्हारे भी मिले हैं
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मुझ को सुकूँ की चैन की पज़मुर्दगी से क्या
हर रोज़ एक ताज़ा क़यामत की आरज़ू
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रुमूज़-ए-इश्क़ की गहराइयाँ सलामत हैं
हमारे ख़्वाब-ए-परेशाँ किसी को क्या मालूम
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मरने के बअ'द कोई पशेमाँ हुआ तो क्या
मातम-कदा जो गोर-ए-ग़रीबाँ हुआ तो क्या
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वाए नाकामी-ए-क़िस्मत कि भँवर से बच कर
लब-ए-साहिल पे जो आए तो कगारा टूटा
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उलझी थीं जिन नसीम से कलियाँ ख़बर न थी
पहुँचेगी बू-ए-नाज़ मिरे पैरहन से दूर
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