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ज़की काकोरवी के शेर

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याद आए हैं उफ़ गुनह क्या क्या

हाथ उठाए हैं जब दुआ के लिए

अहल-ए-दिल ने किए तामीर हक़ीक़त के सुतूँ

अहल-ए-दुनिया को रिवायात पे रोना आया

तू ही बता दे कैसे काटूँ

रात और ऐसी काली रात

अक़्ल ने तर्क-ए-तअल्लुक़ को ग़नीमत जाना

दिल को बदले हुए हालात पे रोना आया

हुस्न जिस हाल में नज़र आया

हम ने उस हाल में परस्तिश की

कितने ही फूल चुन लिए मैं ने

कितने ही फूल रह गए बाक़ी

साफ़ कहिए कि प्यार करते हैं

ये निगाहों का क़ौल-ए-मुबहम क्या

जुनूँ के कैफ़-ओ-कम से आगही तुझ को नहीं नासेह

गुज़रती है जो दीवानों पे दीवाने समझते हैं

लोग कहते रहे क़रीब है वो

हम ने ढूँडा तो दूर दूर था

मंज़िल जिसे समझते थे यारान-ए-क़ाफ़िला

पहुँचे जो उस जगह तो फ़क़त संग-ए-मील था

याद इतना है कि मैं होश गँवा बैठा था

छुट गया हाथ से कब जाम मुझे याद नहीं

वो तिरी ज़ुल्फ़ का साया हो कि आग़ोश तिरा

मिल गया हो कभी आराम मुझे याद नहीं

तिरी जवान उमंगों को हो गया है क्या

डरी डरी सी मोहब्बत मुझे पसंद नहीं

ये रात यूँही बसर हो गई तो क्या होगा

तिरे बग़ैर सहर हो गई तो क्या होगा

मैं ने तन्हाइयों के लम्हों में

तुम को अक्सर क़रीब पाया है

कारवाँ तो निकल गया कोसों

राह भटके हुए कहाँ जाएँ

शिकवा नहीं दुनिया के सनम-हा-ए-गिराँ का

अफ़सोस कि कुछ फूल तुम्हारे भी मिले हैं

दूसरों को फ़रेब दे दे कर

हम ने ख़ुद भी फ़रेब खाया है

रुमूज़-ए-इश्क़ की गहराइयाँ सलामत हैं

हमारे ख़्वाब-ए-परेशाँ किसी को क्या मालूम

मरने के बअ'द कोई पशेमाँ हुआ तो क्या

मातम-कदा जो गोर-ए-ग़रीबाँ हुआ तो क्या

मुझ को सुकूँ की चैन की पज़मुर्दगी से क्या

हर रोज़ एक ताज़ा क़यामत की आरज़ू

बुरी तक़दीर के रोने से हासिल

तलब हो गर तो वीराने बहुत हैं

वाए नाकामी-ए-क़िस्मत कि भँवर से बच कर

लब-ए-साहिल पे जो आए तो कगारा टूटा

दर्द-ए-दिल ने ली थी करवट अभी

उन के माथे पे पसीना गया

उलझी थीं जिन नसीम से कलियाँ ख़बर थी

पहुँचेगी बू-ए-नाज़ मिरे पैरहन से दूर

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