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ज़ीशान नियाज़ी

1974 | कानपुर, भारत

ज़ीशान नियाज़ी

ग़ज़ल 14

अशआर 15

मुद्दतों ख़ुद से मुलाक़ात नहीं होती है

रात होती है मगर रात नहीं होती है

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मुझ से नाराज़ भी नहीं है वो

और उस को मना रहा हूँ मैं

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उस ने इतना किया नज़र-अंदाज़

सब की नज़रों में गए हैं हम

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एक चेहरा तिरा देखने के लिए

कितने चेहरों से हम को गुज़रना पड़ा

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अपने होने का है एहसास तिरे होने से

ग़ैर मुमकिन है मिरा तुझ से जुदा हो जाना

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