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ज़ोया शेख़

1992 | लखनऊ, भारत

ज़ोया शेख़

ग़ज़ल 5

 

अशआर 7

ख़ामुशी का सबब नहीं कुछ भी

मुझ को बस गुफ़्तुगू से नफ़रत है

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वो मिरी सादगी पे मरता है

मुझ को गहनों की क्या ज़रूरत है

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सुनो आओ नया इक ज़ख़्म बख़्शो

तुम्हारा हिज्र बूढ़ा हो गया है

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ख़ुद्दार ख़ुद-परस्त हैं ज़िद्दी बला के हैं

हम जो गए तो लौट कर वापस आएँगे

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फिर यूँ हुआ कि ज़िंदगी इक बोझ बन गई

इक शख़्स मेरे हाथ से यक-लख़्त खो गया

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