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सलीम सिद्दीक़ी

1975

नई नस्ल के नुमाइन्दा शायर

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सलीम सिद्दीक़ी के शेर

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कौन सा जुर्म ख़ुदा जाने हुआ है साबित

मशवरे करता है मुंसिफ़ जो गुनहगार के साथ

आज रक्खे हैं क़दम उस ने मिरी चौखट पर

आज दहलीज़ मिरी छत के बराबर हुई है

हम आदमी की तरह जी रहे हैं सदियों से

चलो 'सलीम' अब इंसान हो के देखते हैं

अपने जीने के हम अस्बाब दिखाते हैं तुम्हें

दोस्तो आओ कि कुछ ख़्वाब दिखाते हैं तुम्हें

उम्र भर जिस के लिए पेट से बाँधे पत्थर

अब वो गिन गिन के खिलाता है निवाले मुझ को

अब ज़मीनों को बिछाए कि फ़लक को ओढ़े

मुफ़्लिसी तो भरी बरसात में बे-घर हुई है

इक एक हर्फ़ की रखनी है आबरू मुझ को

सवाल दिल का नहीं है मिरी ज़बान का है

हूँ पारसा तिरे पहलू में शब गुज़ार के भी

मैं बे-लिबास नहीं पैरहन उतार के भी

ख़ौफ़ आँखों में मिरी देख के चिंगारी का

कर दिया रात ने सूरज के हवाले मुझ को

ख़रीदने के लिए उस को बिक गया ख़ुद ही

मैं वो हूँ जिस को मुनाफ़े में भी ख़सारा हुआ

बेड़ियाँ डाल के परछाईं की पैरों में मिरे

क़ैद रखते हैं अँधेरों में उजाले मुझ को

ज़ख़्म-दर-ज़ख़्म सुख़न और भी होता है वसीअ

अश्क-दर-अश्क उभरती है क़लमकार की गूँज

आज फिर अपनी समाअत सौंप दी उस ने हमें

आज फिर लहजा हमारा इख़्तियार उस ने किया

कज-कुलाही पे मग़रूर हुआ कर इतना

सर उतर आते हैं शाहों के भी दस्तार के साथ

इक धुँदलका हूँ ज़रा देर में छट जाऊँगा

मैं कोई रात नहीं हूँ जो सहर तक जाऊँ

Recitation

Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

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