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नज़्म
फ़ितरत एक मुफ़लिस की नज़र में
दरिया के तलातुम का मंज़र हाँ तुझ को मुबारक हो लेकिन
इक टूटी फूटी कश्ती भी चकराती है मंजधारों में
मुईन अहसन जज़्बी
ग़ज़ल
पार उतरने वालों को अब दीवानों में गिनते हो
शायद ख़ुश-क़िस्मत थे वो जो डूब गए मंजधारों में
रशीद क़ैसरानी
ग़ज़ल
फिर मौजों से चीख़ सी उट्ठी मुझ को तो ये धोका है
गई रात भी पतवारों से ख़ूब निभी मंजधारों की
बिमल कृष्ण अश्क
ग़ज़ल
'आबरू' ग़म के भँवर में दिल ख़ुदा सेती लगा
नाख़ुदा कुछ काम आता नहिं है मंजधारों के बीच
आबरू शाह मुबारक
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ग़ज़ल
हर इक कश्ती का अपना तजरबा होता है दरिया में
सफ़र में रोज़ ही मंजधार हो ऐसा नहीं होता
निदा फ़ाज़ली
नज़्म
रामायण का एक सीन
सरज़द हुए थे मुझ से ख़ुदा जाने क्या गुनाह
मंजधार में जो यूँ मिरी कश्ती हुई तबाह