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ग़ज़ल
ख़ामी-ए-ज़ौक़-ए-तलब ने हमें रक्खा महरूम
ये ग़लत है न सुनी हो तिरी आवाज़ कहीं
सग़ीर अहमद सग़ीर अहसनी
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ग़ज़ल
तिरे अंदाज़ की ग़ारत-गरी भी क्या क़यामत है
कि नक़्द-ए-ज़िंदगी-ओ-गौहर-ए-ईमाँ नहीं मिलता
अब्दुल अज़ीज़ ख़ालिद
ग़ज़ल
अदा-ओ-नाज़-ए-ईमा चश्म-ए-ग़म्ज़ा गो वो कोई हो
त'अल्लुक़ जिस से हो जाए बला-ए-नागहानी है