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ग़ज़ल
ज़ात-कदे में पहरों बातें और मिलीं तो मोहर ब-लब
जब्र-ए-वक़्त ने बख़्शी हम को अब के कैसी मजबूरी
मोहसिन भोपाली
ग़ज़ल
इश्क़-ए-हिसार-ए-ज़ात से दूर बहुत निकल गया
ऐसे में जब्र-ए-वक़्त भी होता है कारगर कहाँ
पीरज़ादा क़ासीम
ग़ज़ल
नरेश एम. ए
ग़ज़ल
ये जब्र-ए-वक़्त है कैसा कि उस की याद के चाँद
उगें तो फिर सर-ए-शाख़-ए-मलाल जलते रहें