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नज़्म
मिर्ज़ा 'ग़ालिब'
फ़िक्र-ए-इंसाँ पर तिरी हस्ती से ये रौशन हुआ
है पर-ए-मुर्ग़-ए-तख़य्युल की रसाई ता-कुजा
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
रूह-ए-अर्ज़ी आदम का इस्तिक़बाल करती है
नापैद तिरे बहर-ए-तख़य्युल के किनारे
पहुँचेंगे फ़लक तक तिरी आहों के शरारे
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
जब तिरे शहर से गुज़रता हूँ
अपने ग़म-ख़ाना-ए-तख़य्युल में
तुझ से होती है गुफ़्तुगू अब भी
सैफ़ुद्दीन सैफ़
शेर
ये किस ने फ़ोन पे दी साल-ए-नौ की तहनियत मुझ को
तमन्ना रक़्स करती है तख़य्युल गुनगुनाता है
अली सरदार जाफ़री
नज़्म
एक रह-गुज़र पर
शबाब जिस से तख़य्युल पे बिजलियाँ बरसें
वक़ार जिस की रफ़ाक़त को शोख़ियाँ तरसें