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ग़ज़ल
बुर्रिश-ए-तेग़-ए-अदा-ए-दोस्त का एहसास है
अब रहीन-ए-मिन्नत-ए-तीर-ए-क़ज़ा कोई नहीं
अब्बास अली ख़ान बेखुद
ग़ज़ल
तीर-ए-मिज़्गाँ को तो पैकान-ए-क़ज़ा कहते हैं
पर निगाह-ए-ग़लत-अंदाज़ को क्या कहते हैं
नश्तर छपरावी
नज़्म
मेजर-इसहाक़ की याद में
हम समझे थे सय्याद का तरकश हुआ ख़ाली
बाक़ी था मगर उस में अभी तीर-ए-क़ज़ा और
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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नज़्म
इरशाद की याद में
अब के भी रास आई न हुब्ब-ए-वतन 'हफ़ीज़'
अब के भी एक तीर-ए-क़ज़ा खा के आ गया
हफ़ीज़ जालंधरी
ग़ज़ल
तेरी चितवन के बल को हम ने क़ातिल ताक रखा था
किधर मक़्तल में बच कर हम से ये तीर-ए-क़ज़ा जाता
बेख़ुद देहलवी
ग़ज़ल
ऐ 'ज़ौक़' है ग़ज़ब निगह-ए-यार अल-हफ़ीज़
वो क्या बचे कि जिस पे ये तीर-ए-क़ज़ा चले
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
दीन ओ दिल जा ही चुका जान भी जाती है तो जाए
तरकश-ए-कुफ़्र में इक तीर-ए-क़ज़ा और सही
मौलाना मोहम्मद अली जौहर
ग़ज़ल
रू-ब-रू उस ज़ुल्फ़ के दाम-ए-बला क्या चीज़ है
उस निगह के सामने तीर-ए-क़ज़ा क्या चीज़ है