aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "मुस्तहिक़"
मीर ख़लीक़
1766 - 1844
शायर
मोहम्मद मुस्तहसन जामी
born.1994
मोहम्मद मुस्तमिर
born.1981
लेखक
मोहम्मद मुस्तहसन फ़ारूक़ी
शम्सुल-मुलूक मुसाहिब
मोहम्मद मुसाहिब अली ख़ान
मुस्तहसिन ख़्याल
मुसततिर जी
चायकीन मुसतशरिक़
मुस्तहसिन रज़ा नसीर
योगदानकर्ता
मुसाहिब अली सिद्दीक़ी
मुसतहसिन
मकतबा दारुल-मुसाहिब, सुल्तानपुर
पर्काशक
मुसतंसिर मीर
मिर्ज़ा साहब मेरी इस तक़रीर के दौरान कुछ इस बे-परवाई से सिगरेट पीते रहे कि दोस्तों की बे-वफाई पर रोने को दिल चाहता था। मैंने अज़-हद हिक़ारत और नफ़रत के साथ मुँह उनकी तरफ़ से फेर लिया। ऐसा मालूम होता था कि मिर्ज़ा को मेरी बातों पर यक़ीन ही नहीं...
हम ख़ुश हैं कि वो एक फ़र्ज़-शनास नौजवान हैं लेकिन सीग़ा-ए-नमक की ए'तिदाल से बढ़ी हुई नमक-हलाली ने उसके इम्तियाज़-ए-इदराक को मग़्लूब कर दिया है, उसे आइंदा होशियार रहना चाहिए। वकीलों ने ये तजवीज़ सुनी और उछल पड़े, पण्डित अलोपीदीन मुस्कुराते हुए बाहर निकले, हवालियों ने रुपये बरसाए, सख़ावत और...
ग़ालिब के हालात नाम: मिर्ज़ा का नाम तमाम तज़्किरा नवीसों ने असदुल्लाह ख़ां लिखा है, चूँकि आप ईरानी उन नस्ल थे इसलिए असदुल्लाह और ख़ां के दरमियान बेग का लफ़्ज़ भी बढ़ा दिया जाता है लेकिन नए मुहक़्क़िक़ों ने इस नाम के मुआमले को भी ख़ास तहक़ीक़ात का मुस्तहिक़ समझा...
वो छः महीने तक एक कोढ़ी की तीमारदारी कर सकता था और रूपा कोढ़ी तो नहीं थी... कोढ़ी तो नहीं थी, ये सोचते हुए नत्थू का दिमाग़ एक गहरी बात सोचने लगा... रूपा कोढ़ी नहीं थी, इसलिए वो हमदर्दी की ज़्यादा मुस्तहिक़ भी नहीं थी। उसे क्या रोग था? कुछ...
सुना है शाइस्ता आदमी की ये पहचान है कि अगर आप उससे कहें कि मुझे फ़ुलां बीमारी है तो वो कोई आज़मूदा दवा न बताए। शाइस्तगी का ये सख़्त मेयार सही तस्लीम कर लिया जाये तो हमारे मुल्क में सिवाए डाक्टरों के कोई अल्लाह का बंदा शाइस्ता कहलाने का मुस्तहिक़...
शायरी में वतन-परस्ती के जज़्बात का इज़हार बड़े मुख़्तलिफ़ ढंग से हुआ है। हम अपनी आम ज़िंदगी में वतन और इस की मोहब्बत के हवाले से जो जज़्बात रखते हैं वो भी और कुछ ऐसे गोशे भी जिन पर हमारी नज़र नहीं ठहरती इस शायरी का मौज़ू हैं। वतन-परस्ती मुस्तहसिन जज़्बा है लेकिन हद से बढ़ी हुई वत-परस्ती किस क़िस्म के नताएज पैदा करती है और आलमी इन्सानी बिरादरी के सियाक़ में उस के क्या मनफ़ी असरात होते हैं इस की झलक भी आपको इस शेअरी इंतिख़ाब में मिलेगी। ये अशआर पढ़िए और इस जज़बे की रंगारंग दुनिया की सैर कीजिए।
दोहा हिन्दी, उर्दू शायरी की मुमताज़ और मक़बूल सिन्फ़-ए- सुख़न है जो ज़माना-ए-क़दीम से ता-हाल एतबार रखती है। दोहा हिन्दी शायरी की सिन्फ़ है जो अब उर्दू में भी एक शेअरी रिवायत के तौर पर मुस्तहकम हो चुकी है। यहाँ कुछ सब से चुनिंदा दोहों को पेश किया जा रहा है कि आप इस ख़ूबसूरत विधा को पढ़ने का सफ़र आग़ाज़ कर सकें।
गिर्या-ओ-ज़ारी आशिक़ का एक मुस्तक़िल का मश्ग़ला है, वो हिज्र में रोता ही रहता है। रोने के इस अमल में आँसू ख़त्म हो जाते हैं और ख़ून छलकने लगता है। यहाँ जो शायरी आप पढ़ेंगे वो एक दुखे हुए और ग़म-ज़दा दिल की कथा है।
मुस्तहिक़مستحق
deserving
मरासी-ए-मीर ख़लीक़
मर्सिया
Iqbal: Poet And Thinker
आलोचना
Urdu Adab Mein Talmeehat
Adwia Medania
Hadon Se Aage
अफ़साना
Tareekh-ul-Ambiya
इस्लामिक इतिहास
Inqalabi Qalandar
ग़ज़ल
Tanqees-o-Taqreez
Irtekab
Pahlu Dar-Pahlu
भाषा एवं साहित्य
Roohaniyat Ke Tajdar
जगन नाथ आज़ाद एक मुस्तक़िल ईदारा
नज़ीर फ़तेहपूरी
Risala-e-Sirveng
Adviya Madania
अब्बास अली
Ek Muallim Ki Khud Guzasht
दरख़्त हैं तो परिंदे नज़र नहीं आतेवो मुस्तहिक़ हैं वही हक़ से बे-दख़ल लोगो
न ढोर हैं कि रस्सियाँगले में मुस्तक़िल रहें
एक साल बारिश बहुत कम हुई। कुंओं और बावलियों में पानी बरा-ए-नाम रह गया। बाग़ पर आफ़त टूट पड़ी। बहुत से पौदे और पेड़ तल्फ़ हो गए। जो बच रहे वो ऐसे निढाल और मुरझाए हुए थे जैसे दिक़ के बीमार, लेकिन नामदेव का चमन हरा-भरा था और वो दूर...
थोड़ी देर ख़ामोश रहने और कुछ सोचने के बाद उसने फिर बोलना शुरू किया, “हो सकता है, मेरे हम-मज़हब मुझे शहीद कहते, लेकिन ख़ुदा की क़सम अगर मुम्किन होता तो मैं क़ब्र फाड़ कर चिल्लाना शुरू कर देता, "मुझे शहादत का ये रुतबा क़ुबूल नहीं... मुझे ये डिग्री नहीं चाहिए...
इतना कह कर उसने ठाकुर साहब को सलाम किया और चल दिया। उसके साथी भी अंदाज़-ए-पुरग़ुरूर के साथ अकड़ते हुए चले। अर्जुन सिंह ने उनके तेवर देखे। समझ गया कि ये लोहे के चने हैं। लेकिन शोहदों का सरग़ना था। कुछ अपने नाम की लाज थी। दूसरे दिन शाम के...
यूँ तो मुल्क का हर वो शख़्स जिसकी रगों में ख़ून दौड़ रहा था, दुर्दाना के लिये यकसर इज़तिराब-ए-शौक़ बना हुआ था। लेकिन सबसे ज़ियादा नुमायाँ और अपने आपको मुस्तहिक़-ए-कामयाबी समझने वाली हस्ती, शहज़ादा नैरोबी की थी। जो न सिर्फ़ अपने हुस्न-ओ-सूरत बल्कि इक़्तिसाबात-ए-ज़हनी के लिहाज़ से भी इस वक़्त...
नहीं था मुस्तहिक़ 'मख़मूर' रिंदों के सिवा कोईन होते हम तो फिर लबरेज़ पैमाने कहाँ जाते
मुस्तहिक़ हूँ तो किसी और से तस्दीक़ भी करमुझ को मत देना अगर मेरा दिलासा न बने
बंदे को चाहिए कि हर हाल में शुक्र-ए-ख़ुदा करे। हर्फ़-ए-शिकायत ज़बान पर न लाए कि माबादा कलमा-ए-कुफ़्र बन जाये और कहने वाला मुस्तहिक़-ए-अज़ाब ठहरे। इन्सान ज़ईफ़-उल-बुनयान ने इस दुनिया में आने के बाद वो कुछ किया है कि उसके साथ जो भी हो उस पर शिकायत की गुंजाइश नहीं। आदमी...
तेरी निगाह तो इस दौर की ज़कात हुईजो मुस्तहिक़ है उसी तक नहीं पहुँचती है
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