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ग़ज़ल
जिस क़दर अफ़्साना-ए-हस्ती को दोहराता हूँ मैं
और भी बे-गाना-ए-हस्ती हुआ जाता हूँ मैं
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
हुस्न-ए-बेगाना-ए-एहसास-ए-जमाल अच्छा है
ग़ुंचे खिलते हैं तो बिक जाते हैं बाज़ारों में
अहमद नदीम क़ासमी
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ग़ज़ल
सारी दुनिया हो चुकी बेगाना-ए-होश-ओ-ख़िरद
कम-से-कम 'सादिक़' को तो होश्यार रहने दीजिए
सादिक़ इंदौरी
ग़ज़ल
वही बेगाना-ए-होश-ओ-ख़िरद साबित हुए हमदम
वो जिन को दीदा-वर समझा जिन्हें अहल-ए-नज़र जाना
क़मर उस्मानी
ग़ज़ल
ज़माना किस क़दर बे-गाना-ए-रस्म-ए-मोहब्बत था
यहाँ तो ख़ुद से भी ना-आश्ना रहना पड़ा मुझ को
रविश सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
सलीक़ा आते आते आया है नज़रों से पीने का
'रिशी' अब मय-कशी बे-गाना-ए-जाम-ओ-सुबू होगी
ऋषि पटियालवी
नज़्म
दश्त-ए-वफ़ा
गो बड़ी चीज़ है ग़मख़ारी-ए-अर्बाब-ए-वफ़ा
कितने बे-गाना-ए-आईन-ए-वफ़ा हैं ये लोग