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ग़ज़ल
पेश-ए-आशिक़ चश्म-ए-गिर्यान-ओ-लब-ए-खंदाँ है एक
जल गया जो नख़्ल उस को बर्क़ और बाराँ है एक
ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर
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ग़ज़ल
शायद मैं उसे देखूँ 'हवस' बा-लब-ए-ख़ंदाँ
जाता हूँ इस उम्मीद पे गिर्यां पस-ए-महमिल
मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस
ग़ज़ल
ले के आई तो सबा उस गुल-ए-चीनी का पयाम
वो सही ज़ख़्म की सूरत लब-ए-ख़ंदाँ तो खुला