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ग़ज़ल
मोजिज़-ए-शक़्क़ुल-क़मर दिखलाएगी अंगुश्त-ए-हुस्न
चाँद तेरे परतवे से ख़ुद कताँ हो जाएगा
क़द्र बिलग्रामी
नअत
रईस अमरोहवी
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ग़ज़ल
क़मर जलालवी
ग़ज़ल
साँस उन के मरीज़-ए-हसरत की रुक रुक के चलती जाती है
मायूस नज़र है दर की तरफ़ और जान निकलती जाती है