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नज़्म
ज़ोहद और रिंदी
मुद्दत से रहा करते थे हम-साए में मेरे
थी रिंद से ज़ाहिद की मुलाक़ात पुरानी
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
ये माना दोनों ही धोके हैं रिंदी हो कि दरवेशी
मगर ये देखना है कौन सा रंगीन धोका है
जोश मलीहाबादी
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ग़ज़ल
ब-ईं रिंदी 'मजाज़' इक शायर-ए-मज़दूर-ओ-दहक़ाँ है
अगर शहरों में वो बद-नाम है बद-नाम रहने दे
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
समझता है गुनह रिंदी को तू ऐ ज़ाहिद-ए-ख़ुद-बीं
और ऐसे ज़ोहद को हम कुफ़्र में दाख़िल समझते हैं
ख़्वाजा अज़ीज़ुल हसन मज्ज़ूब
ग़ज़ल
तमाशा है मिरी रिंदी कि साग़र हाथ में ले कर
हर इक से पूछता हूँ मैं कहीं थोड़ी सी मस्ती है
जलील मानिकपूरी
ग़ज़ल
तलव्वुन चश्म-ए-साक़ी में तग़य्युर वज़्-रिंदी में
हमारे मय-कदे में रोज़ पैमाने बदलते हैं
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
काश ज़ाहिद रुख़-ए-रौशन से उठा लें वो नक़ाब
फिर तो कुछ रिंद की रिंदी है न तक़्वा तेरा