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शेर
अमीर मीनाई
ग़ज़ल
तहव्वुर अली ज़ैदी
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ग़ज़ल
हुज़ूर-ए-दावर-ए-महशर क़यामत-ख़ेज़ सामाँ था
हज़ारों हाथ थे और एक क़ातिल का गिरेबाँ था
राजा नौशाद अली ख़ान
ग़ज़ल
दिल की मताअ' तो लूट रहे हो हुस्न की दी है ज़कात कभी
रोज़-ए-हिसाब क़रीब है लोगो कुछ तो सवाब का काम करो
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
न भूलेगा हमें 'महरूम' सुब्ह-ए-रोज़-ए-महशर तक
किसी का मौत के आग़ोश में वक़्त-ए-सहर जाना