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ग़ज़ल
ये 'नसीर' शाम-ए-सुपुर्दगी की उदास उदास सी रौशनी
ब-कनार-ए-गुल ज़रा देखना ये तुम्ही हो या कोई और है
नसीर तुराबी
ग़ज़ल
रस्म-ए-सुपुर्दगी को कब दर्खुर-ए-ए'तिना कहा
ख़ुद से जो था गुरेज़-पा सब से गुरेज़ कर गया
पीरज़ादा क़ासीम
नज़्म
जुदाई
उभर गई हैं वो चोटें दबी-दबाई हुई
सुपुर्दगी ओ ख़ुलूस-ए-निहाँ के पर्दे में