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शेर
जलवा-ए-रुख़सार-ए-साक़ी साग़र-ओ-मीना में है
चाँद ऊपर है मगर डूबा हुआ दरिया में है
मुज़्तर ख़ैराबादी
शेर
न मिज़ाज-ए-नाज़-ए-जल्वा कभी पा सकीं निगाहें
कि उलझ के रह गई हैं तिरी ज़ुल्फ़-ए-ख़म-ब-ख़म में
अख़्तर ओरेनवी
शेर
निशान-ए-मंज़िल-ए-जानाँ मिले मिले न मिले
मज़े की चीज़ है ये ज़ौक़-ए-जुस्तुजू मेरा
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
शेर
उल्फ़त-ए-कूचा-ए-जानाँ ने किया ख़ाना-ख़राब
बरहमन दैर से का'बे से मुसलमाँ निकला
वज़ीर अली सबा लखनवी
शेर
ये गुम हुए हैं ख़याल-ए-विसाल-ए-जानाँ में
कि घर में फिरते हैं हम अपनी जुस्तुजू करते
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
न आई बात तक भी मुँह पे रोब-ए-हुस्न-ए-जानाँ से
हज़ारों सोच कर मज़मून हम दरबार में आए