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शेर
सब का अलग अंदाज़ था सब रंग रखते थे जुदा
रहना सभी के साथ था सो ख़ुद को पानी कर लिया
राघवेंद्र द्विवेदी
शेर
हाथ मलते हुए आज आते हैं सब रह-गुज़रे
जा-ए-हैरत है कि मैं क्यूँ सर-ए-बाज़ार न था
जुरअत क़लंदर बख़्श
शेर
हर सम्त सब्ज़ा-ज़ार बिछाना बसंत का
फूलों में रंग-ओ-बू को लुटाना बसंत का