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शेर
पंडित विद्या रतन आसी
शेर
कुछ कहने का वक़्त नहीं ये कुछ न कहो ख़ामोश रहो
ऐ लोगो ख़ामोश रहो हाँ ऐ लोगो ख़ामोश रहो
इब्न-ए-इंशा
शेर
ख़ाक-ए-'शिबली' से ख़मीर अपना भी उट्ठा है 'फ़ज़ा'
नाम उर्दू का हुआ है इसी घर से ऊँचा
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
शेर
कुछ ऐसी बन गई तस्वीर उस के दस्त-ए-क़ुदरत से
रहा हैराँ बना कर आप सूरत-आफ़रीं बरसों
बन्द्र इब्न-ए-राक़िम
शेर
उसी दिन से मुझे दोनों की बर्बादी का ख़तरा था
मुकम्मल हो चुके थे जिस घड़ी अर्ज़-ओ-समा बन कर
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
शेर
रुस्वा अगर न करना था आलम में यूँ मुझे
ऐसी निगाह-ए-नाज़ से देखा था क्यूँ मुझे
मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ
शेर
तुंदी-ए-सैल-ए-वक़्त में ये भी है कोई ज़िंदगी
सुब्ह हुई तो जी उठे, रात हुई तो मर गए
हज़ीं लुधियानवी
शेर
मुट्ठियों में ख़ाक ले कर दोस्त आए वक़्त-ए-दफ़्न
ज़िंदगी भर की मोहब्बत का सिला देने लगे
साक़िब लखनवी
शेर
यज़ीद-ए-वक़्त मिरा ख़ूँ बहाना चाहता है
वो कर्बला में मुझे फिर से लाना चाहता है