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शेर
साज़-ए-उल्फ़त छिड़ रहा है आँसुओं के साज़ पर
मुस्कुराए हम तो उन को बद-गुमानी हो गई
जिगर मुरादाबादी
शेर
बद-गुमानी ने मुझे क्या क्या सताया क्या कहूँ
सुब्ह को बिखरे हुए देखे थे इक दिन मू-ए-दोस्त
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
शेर
बद-गुमाँ हो के मिल ऐ दोस्त जो मिलना है तुझे
ये झिझकते हुए मिलना कोई मिलना भी नहीं
फ़िराक़ गोरखपुरी
शेर
क्या क्या हैं दर्द-ए-इश्क़ की फ़ित्ना-तराज़ियाँ
हम इल्तिफ़ात-ए-ख़ास से भी बद-गुमाँ रहे
असग़र गोंडवी
शेर
बाँधा था ख़ुद ही आप ने पैग़ाम-ए-इल्तिफ़ात
क्या बात थी जो आप ही ख़ुद बद-गुमाँ हुए
मुहम्मद अय्यूब ज़ौक़ी
शेर
तंग आ जब जब कहा मैं ने कि मर जाऊँ कहीं
बद-गुमाँ समझा कि इस को इश्तियाक़-ए-हूर है
इमाम बख़्श नासिख़
शेर
वफ़ादारी ग़ुरूर-ए-बे-रुख़ी को ख़त्म कर देगी
ज़ियादा तो नहीं कुछ दिन रहें वो बद-गुमाँ शायद
अबु मोहम्मद वासिल बहराईची
शेर
वज्ह-ए-सुकूँ न बन सकीं हुस्न की दिल-नवाज़ियाँ
बढ़ गईं और उलझनें तुम ने जो मुस्कुरा दिया