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ग़ज़ल
बने बला से मिरा मुर्ग़-ए-नामा-बर भँवरा
कि उस को देख के वो मुँह से ख़ुश-ख़बर तो कहे
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
जो रस और बू से आरी हो जिस फूल की धूप से यारी हो
उस फूल पे भँवरा क्यूँ डोले उस फूल पे शबनम क्यूँ ठहरे
ज़ुहूर नज़र
ग़ज़ल
उफ़ ये पहरे हैं कि हैं पिछले जनम के दुश्मन
भँवरा गुल-दान तक आए तो कली तक पहुँचे
नवीन सी. चतुर्वेदी
ग़ज़ल
तिरे रुख़्सार के तिल पर मुझे अक्सर ख़याल आया
कँवल पर जैसे भँवरा रुक गया हो ज़िंदगी ले कर