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ग़ज़ल
बिन खिले मुरझा गईं कलियाँ चमन में किस क़दर
ज़र्द-रू किस दर्जा हाए माह-पारे हो गए
गुलज़ार देहलवी
ग़ज़ल
बुढ़ापे में नज़र आई ख़ुदा की शान होली में
बनी हैं उन से ज़ाइद उन की अम्माँ जान होली में
नावक लखनवी
ग़ज़ल
सचिन' सूरज से ज़ाइद सुर्ख़ है हर ज़ख़्म सीने का
ग़मों की आँच में इतना उबाले जा चुके थे हम
सचिन शालिनी
ग़ज़ल
अभी तो आग सीने में कहीं कम है कहीं ज़ाइद
अगर मिल जाएँगे आपस में सब छाले तो क्या होगा
जावेद लख़नवी
ग़ज़ल
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
मज़ा क़रार में ज़ाइद कि बे-क़रारी में
ये पूछ मेरे दिल-ए-बे-क़रार से पहले