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ग़ज़ल
हुस्न को क्या दुश्मनी है इश्क़ को क्या बैर है
अपने ही क़दमों की ख़ुद ही ठोकरें खाता हूँ मैं
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
पीर-ए-मुग़ाँ से हम को कोई बैर तो नहीं
थोड़ा सा इख़्तिलाफ़ है मर्द-ए-ख़ुदा के साथ
अब्दुल हमीद अदम
ग़ज़ल
सब से हँस कर मिलने वाले हम को किसी से बैर नहीं
दुनिया है महबूब हमें और हम दुनिया को प्यारे हैं
जमील मलिक
ग़ज़ल
डरे क्यूँ मेरा क़ातिल क्या रहेगा उस की गर्दन पर
वो ख़ूँ जो चश्म-ए-तर से उम्र भर यूँ दम-ब-दम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
बेकल उत्साही
ग़ज़ल
कभी बोसा कभी अंगिया पे हाथ और गाह सीने पर
लगे लुटने मज़े के संगतरे और बैर आँधी में