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ग़ज़ल
मर्द जो आजिज़ हो तन मन सीं कहे ख़ुश-आमद बावर कर
मोहताजी का ख़ासा है रूबाह करे है बबरों को
नाजी शाकिर
ग़ज़ल
रवय्या काफ़ी कुछ बदला हुआ है आसमानों का
मगर नक़्शा वही है अब के भी ख़ाली मकानों का
अब्दुल मन्नान समदी
ग़ज़ल
किसी की आमद-ए-ख़ुश-कुन का मुज़्दा कौन देता है
बनेरे बोलता कागा न अब वो ख़ुश-ख़बर पंछी
अकरम कुंजाही
ग़ज़ल
कुंज-ए-दिल में तिरी चाहत के सिवा कुछ भी नहीं
आइना-ख़ाना में हैरत के सिवा कुछ भी नहीं