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ग़ज़ल
तड़प उठूँ भी तो ज़ालिम तिरी दुहाई न दूँ
मैं ज़ख़्म ज़ख़्म हूँ फिर भी तुझे दिखाई न दूँ
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
पहरों चुप रहते हैं हम और अगर बोलते हैं
वही फिर फिर के उलटती हैं तुम्हारी बातें
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
उल्टे वो शिकवे करते हैं और किस अदा के साथ
बे-ताक़ती के ताने हैं उज़्र-ए-जफ़ा के साथ
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
इक मोहब्बत के एवज़ अर्ज़-ओ-समा दे दूँगा
तुझ से काफ़िर को तो मैं अपना ख़ुदा दे दूँगा