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ग़ज़ल
अजब क्या इस क़रीने से कोई सूरत निकल आए
तिरी बातों को ख़्वाबों से मिला कर देख लेता हूँ
अहमद मुश्ताक़
ग़ज़ल
अज़्म बहज़ाद
ग़ज़ल
ये मुमकिन है कि मिल जाएँ तिरी खोई हुई चीज़ें
क़रीने से सजा कर रखा ज़रा बिखरी हुई चीज़ें
हस्तीमल हस्ती
ग़ज़ल
सुमूम-ए-वक़्त ने लहजे को ज़ख़्म ज़ख़्म किया
वगरना हम ने क़रीने सबा के रक्खे थे