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ग़ज़ल
बस इक निगाह पे है दिल का फ़ैसला मौक़ूफ़
बस इक निगाह में क़िस्सा तमाम होता है
पीर नसीरुद्दीन शाह नसीर
ग़ज़ल
सिर्फ़ दिन ढलने पे मौक़ूफ़ नहीं है 'मोहसिन'
ज़िंदगी ज़ुल्फ़ के साए में भी शब करती है
मोहसिन नक़वी
ग़ज़ल
लिखी है ख़ाक उड़ानी ही अगर अपने मुक़द्दर में
तिरे कूचे पे क्या मौक़ूफ़ वीराने बहुत से हैं
क़मर जलालवी
ग़ज़ल
कुछ उन के रहम पे थी यूँ ही ज़िंदगी मौक़ूफ़
कि उन को राज़-ए-मोहब्बत भी हो गया मा'लूम
फ़ानी बदायुनी
ग़ज़ल
वहशत-अफ़्ज़ा गिर्या-हा मौक़ूफ़-ए-फ़स्ल-ए-गुल 'असद'
चश्म-ए-दरिया-रेज़ है मीज़ाब-ए-सरकार-ए-चमन
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
फ़ना को सौंप गर मुश्ताक़ है अपनी हक़ीक़त का
फ़रोग़-ए-ताला-ए-ख़ाशाक है मौक़ूफ़ गुलख़न पर