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ग़ज़ल
वो जब भी करते हैं इस नुत्क़ ओ लब की बख़िया-गरी
फ़ज़ा में और भी नग़्मे बिखरने लगते हैं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
नुत्क़-ए-ज़बाँ गर होता मुझ को पूछता मैं तक़्सीर मिरी
हाँ ये मगर दो आँखें हैं सो इन से अश्क-फ़िशानी है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
वो बोले 'नुत्क़' तिरी गर्मियों में आग लगे
कभी कहा जो रुख़-ए-आतिशीं का बोसा दो
मक़सूद अहमद नुत्क़ काकोरवी
ग़ज़ल
अहमद नदीम क़ासमी
ग़ज़ल
जो सुनता हूँ कहूँगा मैं जो कहता हूँ सुनूँगा मैं
हमेशा मजलिस-ए-नुत्क़-ओ-समाअत में रहूँगा मैं
अनवर शऊर
ग़ज़ल
उन के रू-ब-रू निकले नुत्क़ ओ लफ़्ज़ बे-मा'नी
बात ही 'अजब लेकिन ख़ामुशी ने पैदा की
ज़हीर काश्मीरी
ग़ज़ल
सो यूँ हुआ कि लगा क़ुफ़्ल नुत्क़-ओ-लब पे मिरे
मैं तुम से मिल के बहुत देर तक रहा ख़ामोश
अब्दुर्राहमान वासिफ़
ग़ज़ल
मिरा नुत्क़ भी है निगाह भी मिरी शाइरी का गवाह भी
तिरी दोस्ती के महाज़ पर वो लरज़ता अक्स किनाए का