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ग़ज़ल
न मस्जिद है कोई न चर्च है न कोई मंदिर है
अगर घर है कहीं उस का तो तेरे दिल के अंदर है
भास्कर शुक्ला
ग़ज़ल
न गिरजा चर्च मंदिर मस्जिद-ओ-मकतब में होती है
तशद्दुद जड़ तिरी दर-अस्ल हर मज़हब में होती है
राहिब मैत्रेय
ग़ज़ल
कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तिरा
कुछ ने कहा ये चाँद है कुछ ने कहा चेहरा तिरा
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
ऐ शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत मैं तिरे ऊपर निसार
ले तिरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है
बिस्मिल अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
बे-साख़्ता निगाहें जो आपस में मिल गईं
क्या मुँह पर उस ने रख लिए आँखें चुरा के हाथ
निज़ाम रामपुरी
ग़ज़ल
चुरा के ख़्वाब वो आँखों को रेहन रखता है
और उस के सर कोई इल्ज़ाम भी नहीं आता
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
ग़ज़ल
मुझ को ख़राब कर गईं नीम-निगाहियाँ तिरी
मुझ से हयात ओ मौत भी आँखें चुरा के रह गईं