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ग़ज़ल
वो क़िस्से जो सुन लेते थे हम अज़-रह-ए-अख़्लाक़
अब अपने यहाँ वक़्त ने दोहराए हैं यारो
महशर बदायुनी
ग़ज़ल
महव याँ तक हूँ तसव्वुर में तिरे अज़-रह-ए-शौक़
हाथ हर दम तिरे दामाँ की तरफ़ जाता है
मारूफ़ देहलवी
ग़ज़ल
पास आना गर नहीं मंज़ूर तो आ आ के शक्ल
अज़-रह-ए-शोख़ी मुझे तू दूर से दिखला न जा
जुरअत क़लंदर बख़्श
ग़ज़ल
वक़्त ने अज़-रह-ए-करम बख़्शा था मुझ को ताज-ए-ज़र
मैं ने ही ख़ुद झटक दिया सर का अज़ाब जान के
नौशाद अली
ग़ज़ल
तय है अब राह-ए-मोहब्बत से गुज़रना मेरा
फिर उसी राह में ख़ुशबू सा बिखरना मेरा