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ग़ज़ल
ज़ात-कदे में पहरों बातें और मिलीं तो मोहर ब-लब
जब्र-ए-वक़्त ने बख़्शी हम को अब के कैसी मजबूरी
मोहसिन भोपाली
ग़ज़ल
इश्क़-ए-हिसार-ए-ज़ात से दूर बहुत निकल गया
ऐसे में जब्र-ए-वक़्त भी होता है कारगर कहाँ
पीरज़ादा क़ासीम
ग़ज़ल
नरेश एम. ए
ग़ज़ल
ये जब्र-ए-वक़्त है कैसा कि उस की याद के चाँद
उगें तो फिर सर-ए-शाख़-ए-मलाल जलते रहें
मोहम्मद अहमद रम्ज़
ग़ज़ल
कुछ कहने का वक़्त नहीं ये कुछ न कहो ख़ामोश रहो
ऐ लोगो ख़ामोश रहो हाँ ऐ लोगो ख़ामोश रहो
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
निज़ाम-ए-वक़्त का अब ख़ूँ निचोड़ना होगा
कि संग-ए-सख़्त अदाओं की अंजुमन में है
औलाद-ए-रसूल क़ुद्सी
ग़ज़ल
जब सर्फ़-ए-गुफ़्तुगू हूँ तो देखे उन्हें कोई
मंज़ूर हो जो अब्र-ए-गुहर-बार देखना
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
बेदारियों में आईं नज़र ये तो है मुहाल
मख़्फ़ी हैं वक़्त-ए-ख़्वाब ब-दस्तूर पिंडलियाँ
कल्ब-ए-हुसैन नादिर
ग़ज़ल
नाज़ुक कमर वो ऐसे हैं वक़्त-ए-ख़िराम-ए-नाज़
ज़ुल्फ़ें जो खोलते हैं तो बल खाए जाते हैं