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ग़ज़ल
बुर्रिश-ए-तेग़-ए-अदा-ए-दोस्त का एहसास है
अब रहीन-ए-मिन्नत-ए-तीर-ए-क़ज़ा कोई नहीं
अब्बास अली ख़ान बेखुद
ग़ज़ल
तीर-ए-मिज़्गाँ को तो पैकान-ए-क़ज़ा कहते हैं
पर निगाह-ए-ग़लत-अंदाज़ को क्या कहते हैं
नश्तर छपरावी
ग़ज़ल
तेरी चितवन के बल को हम ने क़ातिल ताक रखा था
किधर मक़्तल में बच कर हम से ये तीर-ए-क़ज़ा जाता
बेख़ुद देहलवी
ग़ज़ल
ऐ 'ज़ौक़' है ग़ज़ब निगह-ए-यार अल-हफ़ीज़
वो क्या बचे कि जिस पे ये तीर-ए-क़ज़ा चले
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
दीन ओ दिल जा ही चुका जान भी जाती है तो जाए
तरकश-ए-कुफ़्र में इक तीर-ए-क़ज़ा और सही
मौलाना मोहम्मद अली जौहर
ग़ज़ल
रू-ब-रू उस ज़ुल्फ़ के दाम-ए-बला क्या चीज़ है
उस निगह के सामने तीर-ए-क़ज़ा क्या चीज़ है
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
ख़ुशियाँ जा बैठीं कहीं ऊँची सी इक टहनी पर
दिल के बहलाने को इक लफ़्ज़-ए-क़ज़ा रक्खा है
इब्न-ए-उम्मीद
ग़ज़ल
क्या सबब क्या वज्ह क्यूँ आ कर निकल जाए शिकार
क्यूँ निशाना पर न जाएगा हमारा तीर-ए-इश्क़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
क्या क्या हैं गिले उस को बता क्यूँ नहीं देता
ताज़ीर-ए-ख़ता मुझ को सुना क्यूँ नहीं देता
इब्न-ए-रज़ा
ग़ज़ल
जाने क्यों तीर-ए-सितम चलते हैं हम पर 'बेबाक'
अपना मस्लक तो मोहब्बत के सिवा कुछ भी नहीं
शान-ए-हैदर बेबाक अमरोहवी
ग़ज़ल
वो तो कहिये कि है पर्वाज़-ए-तख़य्युल से परे
वर्ना यज़्दाँ भी किसी तीर की ज़द पर होता