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ग़ज़ल
लफ़्ज़ किस शान से तख़्लीक़ हुआ था लेकिन
उस का मफ़्हूम बदलते रहे नुक़्ते क्या क्या
अहमद नदीम क़ासमी
ग़ज़ल
याद आता है वो हर्फ़ों का उठाना अब तक
जीम के पेट में एक नुक्ता है और ख़ाली हे
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
हुकूमत मिल गई तो उन का कूचा छूट जाएगा
इसी नुक़्ते पे आ कर बादशाही छोड़ देता हूँ
अहमद कमाल परवाज़ी
ग़ज़ल
मिरी तवज्जोह बस एक नुक़्ते पे मुर्तकिज़ है
मैं अपनी क़ुव्वत को एक ज़र्रा बना रहा हूँ
अंजुम सलीमी
ग़ज़ल
हर बात में ये जल्दी है हर नुक्ते में इसरार
दुनिया से निराली हैं ग़रज़ तेरी तो रस्में
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
न होगा फ़र्क़ नुक़्ते का मिला कर देख ले कोई
मिरे आ'माल-नामे से नविश्ता मेरी क़िस्मत का
इमदाद अली बहर
ग़ज़ल
मोहब्बत और मेहनत कोहकन ने ये भी की वो भी
उलट है एक नुक़्ते की मोहब्बत और मेहनत में
सफ़ी औरंगाबादी
ग़ज़ल
एक नुक़्ते से उभरती है ये सारी काएनात
एक नुक़्ते पर सिमटता फैलता रहता हूँ मैं