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ग़ज़ल
अब के हम भटके तो राह-ए-रास्त पर आ जाएँगे
सीधे रास्ते से 'मुअज़्ज़म' गुमराही अच्छी लग्गी
मोअज़्ज़म अली खां
ग़ज़ल
थे राह-ए-रास्त पे जब तक पड़े थे पस्ती में
बुलंदियों पे पहुँच कर बिगड़ गए हैं लोग
अनवर कमाल अनवर
ग़ज़ल
राह-ए-तलब में कौन किसी का अपने भी बेगाने हैं
चाँद से मुखड़े रश्क-ए-ग़ज़ालाँ सब जाने पहचाने हैं