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ग़ज़ल
रात आख़िर हुई और बज़्म हुई ज़ेर-ओ-ज़बर
अब न देखोगे कभी लुत्फ़-ए-शबाना हरगिज़
अल्ताफ़ हुसैन हाली
ग़ज़ल
मिले मुझ को ग़म से फ़ुर्सत तो सुनाऊँ वो फ़साना
कि टपक पड़े नज़र से मय-ए-इशरत-ए-शबाना
मुईन अहसन जज़्बी
ग़ज़ल
शब-ए-वस्ल जल्वा-ए-तूर सा वो बदन चमकता था नूर सा
कोई ला-ज़वाल वफ़ूर-ए-रंग-ए-शबाना हो कहीं यूँ न हो
साबिर ज़फ़र
ग़ज़ल
हम अगर सच के उन्हें क़िस्से सुनाने लग जाएँ
लोग तो फिर हमें महफ़िल से उठाने लग जाएँ
शबाना यूसुफ़
ग़ज़ल
ताज़ा ओ ग़मनाक रखते आस और उम्मीद की सब कोंपलों को
और फिर हमराही-ए-बाद-ए-शबाना के लिए महताब होते