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ग़ज़ल
है ये इंसाँ बड़े उस्ताद का शागिर्द-ए-रशीद
कर सके कौन अगर ये भी ख़िलाफ़त न करे
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
जब कहीं लुत्फ़-ए-सुख़न की बात आई है 'रशीद'
ए'तिबारुल-मुल्क का हर लब पे नाम आ ही गया