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ग़ज़ल
एक समय तिरा फूल सा नाज़ुक हाथ था मेरे शानों पर
एक ये वक़्त कि मैं तन्हा और दुख के काँटों का जंगल
नासिर काज़मी
ग़ज़ल
जिस दिन उस की ज़ुल्फ़ें उस के शानों पर खुल जाएँगी
उस दिन शर्म से पानी पानी ख़ुद बादल हो जाएगा
ताहिर फ़राज़
ग़ज़ल
आज भी जैसे शाने पर तुम हाथ मिरे रख देती हो
चलते चलते रुक जाता हूँ सारी की दूकानों पर
जाँ निसार अख़्तर
ग़ज़ल
शाख़ से टूटे सूखे पत्ते तेज़ हवा के शानों पर
शहरों शहरों ख़ाक उड़ाना हम को अच्छा लगता था
कृष्ण अदीब
ग़ज़ल
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
बीन हवा के हाथों में है लहरे जादू वाले हैं
चंदन से चिकने शानों पर मचल उठे दो काले हैं
अमीक़ हनफ़ी
ग़ज़ल
पा-ब-जौलाँ अपने शानों पर लिए अपनी सलीब
मैं सफ़ीर-ए-हक़ हूँ लेकिन नर्ग़ा-ए-बातिल में हूँ