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ग़ज़ल
अक़्ल ओ जुनूँ में सब की थीं राहें जुदा जुदा
हिर-फिर के लेकिन एक ही मंज़िल पे आ गए
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
हज़ार इंकार या क़त-ए-तअल्लुक़ उस से कर नासेह
मगर हिर-फिर के होंटों पर उसी का नाम आएगा
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
हिर फिर के उन की आँख 'अदू से लड़े न क्यूँ
फ़ित्ना को करती है निगह-ए-फ़ित्ना-ज़ा पसंद
बेख़ुद देहलवी
ग़ज़ल
आबिद उमर
ग़ज़ल
मुश्ताक़ हूँ तुझ लब की फ़साहत का व-लेकिन
'राँझा' के नसीबों में कहाँ हीर की आवाज़