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ग़ज़ल
तुम्हें आराम ज़िंदाँ में दिवानों इस सबब से है
दिया ज़ंजीर नें शायद तुम्हारे पाँव को सहला
फ़त्तावत औरंगाबादी
ग़ज़ल
रक़ीब-ए-सिफ़्ला-ख़ू ठहरे न मेरी आह के आगे
भगाया मच्छरों को उन के कमरों से धुआँ हो कर
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
शाह नसीर
ग़ज़ल
क्या हम ने बिगाड़ा फ़लक-ए-सिफ़्ला का 'जोशिश'
क्यूँ दरपय-ए-ईज़ा है ये दिन रात हमारे
जोशिश अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
मैं अपने कर्ब को सहला रहा हूँ मुद्दत से
ये मेरी राख पे सर रख के सोने वाला है