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ग़ज़ल
कमाल-ए-ज़ब्त-ए-गिर्या अज़्मत-ए-शान-ए-मोहब्बत है
छलक जाए जो पैमाना वो जाम-ए-जम नहीं होता
फ़िगार उन्नावी
ग़ज़ल
अज़्मत-ए-शान-ए-मोहब्बत भी दिखा सकते हैं हम
हँसते हँसते जान पर भी खेल जा सकते हैं हम
क़ाज़ी सय्यद मुश्ताक़ नक़्वी
ग़ज़ल
शान-ए-हैरत है कि जिस को संग कह देते हैं लोग
फिर वही दिल टूटने पर आइना कहलाए है
सय्यदा शान-ए-मेराज
ग़ज़ल
इफ़्तिख़ार अहमद सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
किस को मालूम हुई इज़्ज़त-ओ-शान-ए-बुलबुल
कौन है गुल के सिवा मर्तबा-दान-ए-बुलबुल
शाह अकबर दानापुरी
ग़ज़ल
'शान' बे-सम्त न कर दे तुम्हें सहरा-ए-हयात
ज़ेहन में उन के नुक़ूश-ए-कफ़-ए-पा रहने दो
सय्यदा शान-ए-मेराज
ग़ज़ल
'शान' अब हम को तो अक्सर शब-ए-तन्हाई में
नींद आती नहीं और ख़्वाब नज़र आते हैं
सय्यदा शान-ए-मेराज
ग़ज़ल
बे-अमल लोगों से जब पूछो तो कहते हैं की 'शान'
हम अज़ल से क़िस्मत-ए-नाकाम ले कर आए हैं