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ग़ज़ल
थीं बनात-उन-नाश-ए-गर्दुं दिन को पर्दे में निहाँ
शब को उन के जी में क्या आई कि उर्यां हो गईं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
दर्द-ए-दिल इश्क़ में है काहे से सेकूँ मैं ज़रीफ़'
न फ़लालीन ही मिलती है न बानात मुझे
ज़रीफ़ लखनवी
ग़ज़ल
वो नए गिले वो शिकायतें वो मज़े मज़े की हिकायतें
वो हर एक बात पे रूठना तुम्हें याद हो कि न याद हो