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ग़ज़ल
ये सिर्फ़ हर्फ़ों की ताब-कारी का ज़हर कब है
ख़ुदा के बंदो ये हम ग़रीबों की शाइ'री है
जहाँज़ेब साहिर
ग़ज़ल
ऐसा बंद-ओ-बस्त हमारे हक़ में कैसा रहना था
हल्के हल्के चुन कर उस ने आधे पार उतारे लोग
हमीदा शाहीन
ग़ज़ल
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
ग़ज़ल
फुग़ान-ए-हक़्क़-ओ-सदाक़त का मरहला है अजीब
दबे तो बंद-ओ-सलासिल उठे तो दार-ओ-सलीब