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ग़ज़ल
अब न वो मैं न वो तू है न वो माज़ी है 'फ़राज़'
जैसे दो शख़्स तमन्ना के सराबों में मिलें
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
दौड़ाती है ये रूह मिरी जिस्म को हर-सू
असवार उड़ाता है ज़माने में फ़रस को
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
ग़ज़ल
लरज़ जाता है थोड़ी देर को तार-ए-नफ़स मेरा
सर-ए-मैदाँ कभी जब जस्त करता है फ़रस मेरा
ग़ुलाम हुसैन साजिद
ग़ज़ल
सहमे सहमे न रहें क्यूँकि मुक़ीमान-ए-फ़लक
कि फ़लक है हदफ़-ए-तीर-ए-फ़ुग़ान-ए-देहली